एम्स जैसे सरकारी अस्पताल होने के बावजूद आखिर मरीज क्यों प्राइवेट अस्पतालों की तरफ रुख कर रहे हैं, जानिए सच !

एम्स जैसे सरकारी अस्पताल होने के बावजूद मरीज प्राइवेट अस्पतालों की तरफ रुख कर रहे है इस हेतु ना तो सरकार के पास, इससे सम्बंधित रणनीति है और ना ही कोई योजना, जिसके कारण एम्स जैसी सरकारी संसथानो पर पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद आज भी हमारे देश में स्वास्थ्य की स्थिति दयनीय है।

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एम्स में मरीजों की भारी लाइन


इसमें कोई दो राय नहीं है कि डॉक्टर हमारेे भगवा के रूप होते हैं, उन्हीं के कारण आज हमने करोना (COVID) जैसे भयंकर महामारी पर काबू पाया है, और अपनी जित दर्ज की है, लेकिन दूसरा सत्य यह भी है कि हमने अपने हजारों भाई बहनों को इस महामारी में खोया है, कैसे भुलाया जा सकता है इस जख्म को ? जिसने मानव जाति के अस्तित्व को एक बार फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया कि जैसा कि वह समझते हैं कि उनसे बड़ा इस ब्रह्मांड में कोई नहीं है, उनको मात्र एक ना दिखने वाले वायरस ने उनके अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। सरकार की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गई थी। जो मानव ब्रह्मांड से बाहर तक ताकने की क्षमता रखता है वह अपने कमरे में सिमट गया था, खैर यह एक अलग ही मुद्दा है अगर हम इस पर चर्चा करेंगे तो अपने आज के इस मुद्दे से भटक जाएंगे। इस पर अभी हम कभी और चर्चा करलेंगें, चलिए अपने मुद्दे पर आते हैं….

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देश के आजादी के बाद अमृत कौर के अथक प्रयत्नों के कारण ही दिल्ली में एम्स जैसे संस्थान का निर्माण हुआ, जिसने विश्व स्तरीय स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर देश में ना जाने कितने ही रोगों से ग्रसित मरीजों को पूनः जीवन प्रदान करके, एक भगवान के आशीर्वाद के रूप में अपने अस्तित्व को आज भी कायम रखने में समर्थ्य है। यह सिर्फ हमारे डॉक्टरों, नर्सों, तकनीशियनों तथा समस्त संबंधित कर्मचारियों के समर्पित कर्तव्यनिष्ठता के कारण ही संभव हुआ है। वास्तव में अमृत कौर की सोच व उनकी कार्य क्षमता ने, एम्स जैसे संसथान की नीव रखकर देश को एक वरदान के रूप में अपना आशीर्वाद दिया ! परंतु क्या सरकार आगे भी इसकी विस्वश्नीयता को कायम रख पायेगी यह एक शोध का विषय है।
सरकार ने भारत के प्रत्येक राज्य के लिए एम्स जैसे संस्थान का निर्माण संपूर्ण भारत में एक जैसी स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने की नियत से विश्व स्तरीय चिकित्सा पद्धति को अपनाकर उसे क्रियान्वित करने हेतु दिल्ली एम्स के तर्ज पर इन चिकित्स्कीय संस्थानों का निर्माण कर सम्पूर्ण भारत कोएकसूत्र में बांधने का प्रयत्न किआ है। इसके वावजूद भी आज मरीज प्राइवेट जैसी संसथानो में अपना इलाज करवाने जा रहे है। क्या है मुख्य कारन आइये कुछ मुख्य मुद्दों को समझने की कोशिश करते है

१. सरकार के पास नहीं है कोई रणनीति
सरकार ने एम्स जैसे संस्थान को खड़ा तो कर दिया परंतु एम्स जैसी सुविधाएं देने में असमर्थ साबित हो रही है। एम्स में आज भी मरीज टेस्ट तथा जांच तथा बेड के चक्कर में भटकते रहते हैं इसका मुख्य कारण उचित रूप से मैनेजमेंट की कमी है
एम्स में डायरेक्टर तथा ड्प्टी डायरेक्टर दोनों ही है लेकिन किसी के पास इतना समय ही नहीं है कि अपने ही संस्थानों के विभागों में निरिक्षण करें। विभागों में डायरेक्टर से लेकर निचले कर्मचारी तक सभी की उपस्थिति दर्ज करने के लिए बिओमेट्रिक्स तो है लेकिन यह सिर्फ बी तथा सी ग्रुप के कर्मचारियों के लिए ही लागू होता है लेकिन जब अस्पताल का मुखिया विभगों के विभागाद्यक्ष ही नियम का पालन नहीं करेंगें तो बाकि साथ में कार्य करने वाले से उम्मीद ही क्या की जा सकती है जबकि सभी उच्च अधिकारीयों को साडी सुविधाएँ मिलती है, कोई भी उच्च अधिकारी के पास इतना समय नहीं है की ओपीडी में जाकर देखे की वास्तव में मरीजों को क्या तकलीफ है, उन्हें समय पर उचित मूल्य पर दवाइयां मिल रही है की नहीं , ऐसा तो नहीं लोभ के चक्कर में कोई डॉक्टर कहीं प्राइवेट अस्पतालों में मरीजों को रेफेर तो नहीं कर रहे।
वास्तव में इन संस्थाओं में, कहीं सुविधाओं का अनुचित उपयोग तो नहीं हो रहा, डायरेक्टर , उपडायरेक्टर, तथा संस्थानो के विभाग उचित काम कर रहे है की नहीं इस पर नजर रखने, तथा नजर रखने वाली संस्थाएं पारदर्शी है की नहीं यह जानने , औचक निरक्षण होता है की नहीं , जैसे विभाग में कहीं संसाधनों के नाम पर घोटाला तो नहीं हो रहा इसे जानने का कोई उचित साधन नहीं है, जिसमें कहीं न कहीं सरकार की लाचारी झलकती है।

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२. ढेकेदारी भी है एक मुख्य वजह
सरकार सभी निचले स्तर के कर्मचारियों को को ढेकेदारों के हाथों में सौंप रही है जिससे ये ठेकेदार संस्थानों से मिलकर उन्हें चढ़ावा देते है और मन-माने रूप से कम दक्षता वाले कर्मचारियों से पैसा (लाखों रुपया )लेकर उन्हें नौकरी दे देते है जिसकी जाँच तक नहीं होती ऐसी समाचार अक्षर ऋषिकेश एम्स , रायपुर एम्स , पटना एम्स से सुनेनने को मिलती है लेकिन उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती।
वही सभी वभागों की सैलरी महीने की अंतिम तारीख को मिल जाती है लेकिन बिचारे ओउटसोर्स पर काम करने वाले कर्मचारियों को अपनी ही मेहताना के लिए १५ तारीख तक इंतजार करना होता है, अगर इन कर्मचारियों से कोई उच्चाधिकारी अनुचित (घातले जैसा ) काम करवाता है तो ये बिना विरोध किये करते है, क्योंकि उन्हें डर होता है अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो उन्हें बहार का रास्ता दिखा दिया जायेगा और वे जो घुस देकर नौकरी पाए थे उसका ब्याज भी नहीं निकल पाएंगे। इसप्रकार आउटसोर्स कर्मचारियों से मनमाने तरीके से काम कराया जाता है, ऐसे काम दक्षता वाले कर्मचारी जब एम्स जैसी संसथान में काम करेंगे तो इससे मरीजों की जान पर भी आएगी क्योंकि नर्स , तकनीशियन , वार्ड बॉय , लैब अटेंडेंट ये सभी किसी भी अस्तपताल की रीद की हदी होते है। इनके व्यवहार व कार्यकुशलता ही मरीजों को जीवन प्रदान करते है, आज इनको किनारे नहीं रखा जा सकता , बिना लैब रिपोर्ट के ट्रीटमेंट असंभव है , तो क्या इस प्रकार का व्यव्हार जो मरीजों की जान ले लेता है भला कोई मरीज अपना इलाज क्यों करवाएगा।

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३. भाई भतीजावाद
एम्स चाहे जॉब पाना हो , चाहे इलाज करना हो पहचान होना जरूरी है, आप कितने ही बड़े पड़े लिखे क्यों न हो आप एम्स में पी एच डी का एग्जाम क्यों न निकल दे, रखा उन्हें ही जायेगा जिसका जाननेवाला कोई उच्चाधिकारी एम्स में न हो , अगर मेरा भाई फैकल्टी है तो मुझे लीगल एडवाइसर तो बना ही देगा या फिर कैंटीन को ठेके में दिलवा दे या फिर ……इस प्रकार भाई भतीजावाद कही न कहीं न कहीं नासूर की तरह जो ठीक भी नहीं होता दर्द भी नहीं जाता। बिचारे मरीज जिनका एक्सीडेंट आज हुआ है उसे सी टी स्केन या एम आर आई का डेट एक महीने बाद मिलता है, आज पेट में दर्द हो रहा है डॉक्टर अल्ट्रा साउंड का डेट २ हप्ते बाद का देता है तो क्या वह मरीज दो हप्ते तक जीवित रहेगा या एम आर आई के लिए इंतजार करेगा जिससे उसकी मृत्यु हो जाये लेकिन एम्स ने तो इलाज करके उन्हें घर भेज दिया ऐसा रिकॉर्ड कहते है ऐसा रिकॉर्ड कहते है , फिर यही लोग अपने बीबी के गहने गिरवी रखते है या खेत बेचते है लेकिन इलाज बहार ही करवाते है।

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४. सुविधाओं की कमी
कहने के लिए तो लोग यह समझकर एम्स में इलाज करवाने आते कि उन्होंने सुना है की उनके राज्य में भी एम्स खुला है और दिल्ली एम्स की छवी उनके दिमाग घूमने लगाती है, इसलिए यहाँ चले आते है कि उन्हें दिल्ली एम्स की तरह इलाज मिलेगा , लेकिन यहाँ तो नजारा ही कुछ और होता है, बड़ी मुश्किल से उनका नंबर आता है तो पता चलता है की उसका इलाज जिसने किआ है वह तो जेआर है जो अभी ही एक ज्वाइन किआ है , डॉक्टर साहब तो बीजी है भाई, फिर डॉक्टर साहब को अपना प्रोजेक्ट करना है इसलिए एक लम्बा चौड़ा टेस्ट लिख देते है , जिसका बिल बिचारे मरीज को बरना पड़ता है …. उसे क्या पता वह तो इलाज करने आया था , उसे तो गिन्निपिग बना दिआ गया। मरीज भजब समले दे देता है और अगले बरी जो कई दिनों की हो सकती है क्योंकि जिसका मरीज है वही इलाज करेगा अगर बुधवार वाला मरीज गुरुवार को आ गया तो खैर नहीं विचारा मरीज हप्ते भर बाद आता है तो पता चलता ही उसका ब्लड तो क्लॉट हो गया या कहीं खो गया , यह आप बात है , अरे अमृत फार्मेसी के पास तो दवा ही नहीं है , वह तो वह साडी दवाये रखता है लेकिन जिसमे अधिक मार्जिन है बाकि , बाकि क्या बहार से ले लेना, कुछ जाँच डॉक्टर ने और लिख दिया, ठीक है एम्स में आये है भाई ! लेकिन ये क्या एम्स में तो टेस्ट के लिए रीजेन्ट नहीं है इसलिए टेस्ट बहार से करना होगा….. विचार मरीज हारकर प्राइवेट का रूख कर ही लेता है।


५. कर्मचारियों पर काम का दवाव व अपने उच्चादिकारियों का डर
अक्सर देखा गया है कि सरकार के पास तो संसथान बनाने के लिए पैसे तो होते है लेकिन कर्मचारियों को सैलरी देने के लिए पैसे नहीं होते इसलिए सरकार काम कर्मचारियों से एम्स जैसी संसथान को चलना चाहती है और काम कौन करता है छोटे कर्मचारी , एम्स जैसी संसथान में उच्चाधिकारी इसलिए डराते है की उन निचले कर्मचारियों का ए पी आर उन बड़े अधिकारीयों को के पास ही होता है, और हर उच्चअधिकारी अपने निचले अधिकारी को डराकर रखता है , अगर अगर कोई निचला अधिकारी कुछ खिलाफत करता है तो उसका सी आर ख़राब दिए जायेगा , और प्रमोशन में कोई बाधा न हो इसलिए बिचारे यह सोच कर काम करते है चलो सैलरी तो आ रही है इसलिए अफसरसाही के कारण मरीज ही नहीं बी और सी ग्रेड के कर्मचारियों के साथ अनुचित व्यव्हार किआ जाता है , पहले कास्ट सिस्टम चलता था अब ये लोग क्लास सिस्टम चला रहे है, घंटों की मीटिंग में अधिकारी सोफे पर बैठे होते और बी , सी कर्मचारी खड़े रहते है, बड़े कर्मचारी चाय की चुस्की ले रहे होते है और बी, सी ग्रेड के कर्मचारी उनका मुँह तक रहा होता है। जब बड़े कर्मचारी जो प्रोफ़ेसर से लेकर प्रशासनिक तक अपने कर्मचारियों को दास समझते है वह मरीजों को क्या समझते होंगें।
अगर यही स्थिति रही तो दिल्ली एम्स का शाख पर भी आंच आने लगेगी और अमृत कौर ने जो विस्वस्तरीया चिकित्सापद्धति की शुरुआत की थी वह भी गुमनामि में खो जाएगी , और मरीजों को बाजार में भटकना ही पड़ेगा जहां उनकी किडनी और लिवर का डैम लगेगा और कोई पैसा वाला बोली लगा रहा होगा और सरकारी उच्चाधिकार ए सी में बैठकर चाय पीते हुए योजना बना रहे होंगे और निचला अधिकारी एन पी एस -ओ पी एस में उलझकर गुलामों की तरह परमोशन के लिए इनके हाँ में हाँ मिला रहे होंगे , यही सच्चाई है थोड़ी कड़वी जरूर है।

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सुझाव
सरकार को चाहिए कि कड़े नियम बनाये , दोषी पाए जाने पर सजा हो, एम्स दिल्ली को यूनिवर्सिटी का दर्जा मिले तथा बाकि एम्स उसके अधीन काम करे, प्रत्येक कर्मचारी को दिल्ली एम्स में यूनिट बनाकर विजिट कराया जाये जो दिल्ली एम्स के करकरने की कला को समझ अपने संसथान में लागू कर सके, रीजेन्ट्स और दवाइयों की कमी होने पर सम्बंधित कर्मचारी के खिलाफ कार्यवाही हो। अगर कोई डॉक्टर ओ पी डी के समय अपने ड्यूटी सीट पर नहीं होता, कोई लैब फैकल्टी क्लास को छोड़कर लैब में नहीं पाई जाती तो उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए ईमानदार कर्मचारियों को प्रोत्साहित किया जाये।
कर्मचारियों के लिए दिल्ली एम्स की तर्ज पर अलग से ओ पी डी तथा दवाई की व्यवस्था हो जिसका टाइमिंग जनरल ओ पी डी के बाद हो जिससे सभी कर्मचारी ड्यूटी पर उपस्थित रहे और मरीज के लिए अपना पूरा समय दे सकें।  
एम्स की चिकित्सा पद्धति सभी जगह लागू कर देना चाहिए , साथ ही एम्स दिल्ली के सरे नियम जो वहां लागूं होते है वह सभी एम्स को फॉलो करना होगा, चाहे वह कर्मचारी हित में हो चाहे मरीजों के हित में, ऐसा नहीं की आप ऑटोनोमस है तो मनमानी करेंगे।  मरीज को अगर बहार टेस्ट के लिए भेजा जाता है या बहार दवाई इ लिए भेजा जाता है तो उसका पैसा भी एम्स को ही देना होगा चाहे वह कोई भी जाँच क्यों न हो। तभी जाकर एम्स के मरीज पुनः प्राइवेट से एम्स की तरफ अपना रूख कर सकेंगें।  

हो सकता है मेर लेख मेरे विचारों पर केंद्रित है इसलिए आपसे अनुरोध है आप इसे एक सुझाव के रूप में समझें, अगर आपको मेरा लेख पसंद आये तो कमेंट कर मुझे उत्साहित कर सकते है।  
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